Tuesday, December 2, 2014

कुछ नहीं पहना था उसने


कुछ नहीं पहना था उसने
या शायद पानी की इक चादर थी
चाँद  भी  तो  था वहाँ
चांदनी की उसे आदत थी
मुस्कुरा कर भर लेती थी
बाहों में उस चाँद को
खिलखिला कर उड़ाती थी
उन लहरों को यहां वहाँ
किलकारियाँ सी मारती थी हवा
जब झूमती थी वो कहीं
गाती गुनगुनाती
क्या जादू सा करती थी
बादलों की आवाज़ से भी
वो नहीं सहमती थी
उसे पसंद थे तूफ़ान
लहरों से बातें करती थी
हवा में उड़ना उसका शौक था
जाने कैसे वो चलती थी
राहें जैसे सपनों का जहां
zindagi को कुछ ऐसा pakadti थी
usko पसंद था hasna gaana
dard से kahaan वो darti थी
जब पीछे पड़े ज़माना
कुछ ऐसा वो भड़कती थी
बारिश को पसंद था उसका चिल्लाना
वो बारिश में फुदकती थी
वो चाँद था उसका निशाँ
उस चाँद को वो तकती थी
रात की तन्हाइयों में
वो कुछ ऐसा महकती थी
कुदरत भी आ जाती थी वहाँ
जहां kadam वो रखती थी
उसे नदियां पसंद थीं
नदियों से वो बातें करती थी
घंटों नदी किनारे बैठकर
जाने क्या क्या करती थी
कभी कहती थी वो नदी है
कभी नदियों पर चलती थी
नागिन सी आँखें कमर पर कसकर
कुछ ऐसे आहें भरती थी
रुक जाता था जहां इक बार
जब वह दो दम भरती थी
राहों पर गुनगुनाते हुए
कुछ ऐसे वो चलती थी


written by - Mystical Wanderer

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