बंद किताब के पन्नो में
तनहा देखा उसको
कुछ खिताबों में उलझी थी
कुछ खोई सी वो
हमने पूछा
अरे तुम्हे कैसे
किसी ने ना देखा
तुम तो इतनी हसीं हो
जैसे कुदरत की रेखा
तुम ने कितना कुछ जिया है
हमने सब पड़ा है
उंचंद शब्दों में
जैसे तुमको छुआ है
बंद किताब के पन्नों में
तनहा देखा उसको
आज भी लगता है
क्या वह तुम थी
या ये तुम हो
हर सुबह जब तुम जागती थी
सपनो की दुनिया को
सदियों तक ताकती थी
भीगे से चेहरे पर
कुछ धुंआ सा होता था
सपनो सा जहां
कुछ ऐसा होता था
तुम खिलखिला कर हंसती थी
कितना चहकती थी
हर पल ख़ुशी से
कुछ ऐसा महकती थी
बंद किताब के पन्नो में
तनहा देखा उसको
उन ख्वाबों के समुन्दर में
क्या वो तुम हो
शेरनी सी लगती थी
बाहर जब निकलती थी
कुछ अलग ही रौब था तुम्हारा
तुम कुछ ऐसा चलती थी
कभी अचानक बिन बात
बंद कमरों में बिलखती थी
कभी निकलती थी उस पार
सड़कों पर दहकती थी
कभी ना जाने कैसे
इतना चहकती थी
बंद किताब के पन्नो में
तनहा देखा उसको
साँसों से आती जाती
क्या वो तुम हो
हमने देखा था तुम्हे
जब उन रातों को
तुम कुछ ऐसे गुज़ारा करती थी
शान से उनके क़दमों से
अपने कदम मिलाया करती थी
बनाती थी ख़ुशी से
उस धुंए में कुछ ख्याल
भर्ती थी हर सुबह के साथ
हर दिन एक नयी उड़ान
बहुत प्यार करती थी ना
बहुत शर्माती थी
कभी कभी ख़ुशी से
उनके इतना करीब आ जाती थी
पर शब्दों का खेल था शाायद
या तुम्हारे लेखक की पसंद
पर हमेशा की तरह
तुम हमें तब भी अच्छी लगती थी
बंद किताब के पन्नो में
तनहा देखा उसको
तो लगा पूछ लें
क्या हुआ सब को
क्यों वो अब
खिताबों से दूर भागती है
क्यों अब उसको
वो दुनिया नहीं भाती है
क्यों उसे
सबसे हुई है तकलीफ
क्यों नहीं होती वो अब
किसी की दुनिया में शरीक
क्यों उसे अब अनजान सा डर लगता है
क्यों अब उसका चेहरा
सपनो से ना दमकता है
बंद किताबों के पन्नों में
तनहा देखा उसको
शब्दों के ये कैसे खेल
इस कदर
छू गए उसको....
- सुरभि रोहेरा
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