Monday, December 22, 2014

बजते घुंघरुओं में झूमती सी वो




नीले आस्मां में घुलता सा सूरज
बजते घुंघरुओं में झूमती सी वो
कहीं शायद सितार बज रहा था
जाने उन मीनारों को किसने गड़ा था
भोले से चेहरे पर
वो दो तीखी आँखें
थिरकते क़दमों में
नाचती सी नाज़नीन
नदी जैसे उसे कुछ कह रही थी
जाने कब से वो वहां रह रही थी
हर रोज़ उसे वहाँ नाचना होता था
आस पास कोई नहीं होता था
बस पानी की इक अजीब सी पुकार
बादलों का खोया सा आकार
उसे नाचना पसंद था
पानी की लहरों पर
उसे गाना पसंद था
संगीत के सुरों पर
बजते घुंघरुओं में झूमती सी वो
जाने कहाँ से आती थी
कहाँ रहती थी
कहाँ जाती थी
बांसुरी की आवाज़ कभी कभी
यहां तक चली आती थी
खनकती चूड़ियों से
वो यूँ रिझाती थी
उन मीनारों को ये इल्म भी न था
वो लाल सा सूरज उनपर कैसे पड़ा था
हर पल सूरज डूबता जाता था
मुस्कुराता हुआ चाँद
कुछ ऐसे आता था
वो नाचती रहती थी
अपने उस चाँद के लिए
जो हर रोज़ हर रात
उसे मिलने आता था
बजते घुंघरुओं में झूमती सी वो
जाने क्या गुनगुनाती थी
नाचती थी वो
तो ज़िन्दगी आती थी
बारिश की बूदें
उसको बहुत भातीं थीं
उन बूदों में भी
वो नाचती जाती थी
उसे तो पसंद था
हसना गाना
नाचना घूमना
बारिश की बूदों में
ज़ोर से चिल्लाना
धीमे धीमे गीतों में
खुश हो जाना
सागर की लहरों पर
नाचते जाना
बजते घुंघरुओं में झूमती सी वो
आखिर तुम
उन मीनारों में क्यों हो
क्यों नदी किनारे तुम्हे
तनहा आना होता है
क्यों हर सपने में
सुनसान जगह जाना होता है
क्यों तुम्हे उस चाँद से
इतनी मोहब्बत है
क्यों तुम्हे दुनिया से
ऐसी उल्फत है
पर उन वादियों में
जब नाचती तुम हो
ऐसा लगता है
मानो दुनिया तुम हो
बजते घुंघरुओं में झूमती सी वो
जैसे रात और सुबह सब में तुम हो

paintings and poem by - सुरभि रोहेरा



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