इक बूँद जब निकलती है बादल से कभी
खुद को तनहा पाती है तभी
उछलते कूदते गाते सहमते
वो गिरती जाती है
गिरती जाती है
बादल की आवाज़
उसे हर जगह आती है
बादल पुकारता है
अपनी बूँद को
कहता है मत जा
कहीं दूर तू
पर बूँद चाह के भी
नहीं लौट पाती है
बूँद की फितरत है
वो गिरती जाती है
मुसीबतें काम नहीं है
गिरने में भी
ये बात बूँद भी जानती है
बादल की गोद की याद
उसे हर जगह आती है
पर बूँद की किस्मत है गिरना
ये बात वो जानती है
उसे ये सब है करना
वो बादल को समझाती है
बादल बूँद को कहता है
तू पथ्थर की बानी है
मेरी प्यारी बच्ची बूँद
तू क्यों ये सब चाहती है?
बर्फ से निकली ठंडी बूँद
गर्म हो जाती है
जैसे कोई आग
बूँद की बनी हो
वो छलकती देखती है
ये कैसी रीती है
गिरने में भी है मज़ा
ये दुनिया क्यों नहीं जानती है
पर सब कुछ गिरा तो
बूँद बूँद नहीं रहेगी
बादल में ही रही
तो बादल कैसे बनेगी
उसका मुकद्दर उसकी चाहत
गिरने के अलावा कुछ नहीं
गिरी नहीं तो ज़िन्दगी
का मतलब कुछ नहीं
हाँ इक दिन लौटना है
बादल से निकली उस बूँद को
फिर इक बार बादल बनना है
मगर मंज़िल अभी दूर है
और अभी है उसे गिरना
रो कर या हंस कर
उस दुनिया को समझना
दिक्ततें आएंगी ज़रूर
पर वो ही तो है परखना
बादल की याद के साथ
बादल तक पहुंचना
बादल सब समझता है
पर फिर भी कड़कड़ाता है
मेरी प्यारी बच्ची बूँद
ये कैसा नाता है
ये कैसा नाता है
Sweetly written.. Every bit of it can be felt. "Badal Jarur Samjhega". All the Best.
ReplyDeleteUmda poetry.. Keep it up!
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