Saturday, May 6, 2017

कबड्डी



रूह कुछ तृप्त सी है
मन कुछ शान्त सा
मानो सब कुछ एक खेल हो
और अस्तित उससे अंजान सा।
आज सब ख़ुशी दे
अगला लम्हा ग़म ले आये
ये सब खेल ही तो है
कभी धूप कभी छांय।

कबड्डी कबड्डी कबडडी
दुनिया उछलती है।
मौके की उम्मीद से
ओहदे गड़ती है।

कब्बड्डी ये करो
कबड्डी आगे बड़ो
कबड्डी रुक जाओ
देख़ो दुनिया जीत के लिए
क्या क्या करती है।
पर जीत किस से और हार कैसी?
खेल खेल में
ज़िन्दगी कहाँ रही

ये सब हिस्सा है
उस छल का
जिससे गुज़रना है
ज़िन्दगी तो उससे काफी ऊपर
काफी अलग है
उसमें खुश रहना
प्यार से रहना
सबसे बड़ा रहम है।

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