Sunday, February 12, 2017

बचपन



जी कर रहा  है
फिर बच्ची बन जाऊँ
परियों की कहानी
सपनों भरी दुनिया
वो गर्म दोपहार में
छत वाले कमरे में
घंटों खेलना

सपनों की तो आज भी कमी नहीं
खुद के साथ रहूं या औरों के
अक्सर लगता है
जैसे मुझमे कुछ है
जैसे वो मैं बड़ी ही नहीं

नकाबों से परे आज भी
सपने ज्यादा सच लगते हैं
आज भी मीठी गोली लेने
कदम खुद ब खुद
नुक्कड की उस दुकान
की तरफ बढते हैं

अखिर क्यूँ हम वक्त के साथ
खुद को खोना इतना आम
समझते हैँ
आत्म मिलन के लिये अहम है
खुद ही का बचपन .

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