जी कर रहा है
फिर बच्ची बन जाऊँ
परियों की कहानी
सपनों भरी दुनिया
वो गर्म दोपहार में
छत वाले कमरे में
घंटों खेलना
सपनों की तो आज भी कमी नहीं
खुद के साथ रहूं या औरों के
अक्सर लगता है
जैसे मुझमे कुछ है
जैसे वो मैं बड़ी ही नहीं
नकाबों से परे आज भी
सपने ज्यादा सच लगते हैं
आज भी मीठी गोली लेने
कदम खुद ब खुद
नुक्कड की उस दुकान
की तरफ बढते हैं
अखिर क्यूँ हम वक्त के साथ
खुद को खोना इतना आम
समझते हैँ
आत्म मिलन के लिये अहम है
खुद ही का बचपन .
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