Tuesday, July 15, 2014

सिसक जुबां की



अँधेरी रात की धीमी सी चांदनी
फुसफुसा के गयी जब एक भीनी सी मुस्कान
सिरसिरा सी गयी सिसक जुबां की
जब लिया उस एक पल ने थाम

बदन की चीख मानो शांत हो गयी
शाम के चिराग में इक सिरहन सी दौड़ गयी
इश्क़ की उस जलती शमा की रात से
अँधेरी रात की डबडबाती आवाज़ से

है सी लगी उस शहर में
जहाँ थी सांस उसके गेहेन में
थमी सी सांसें रुके से दिन
उल्फत भरी ज़िन्दगी
दिल्लगी उनके बिन

रुतबा सा नूर में
आँखों में जगजाई
कहते हैं हमने कर दी
जगहसाई जगहसाई

हिसाब लेंगे उस खुदा से
ऐ खुदा हमने क्या की खुदाई
कि किस्मत में लिख दी
इतनी तन्हाई और जुदाई

याद करेंगे जब वो एक शहर सा
मिल के बैठेंगे हम उसके हीर सा
झिलमिलाती आँखों से जब निकलेंगे लहू बन कर
कर देंगे खुद को उसके नाम
सब हार कर
सब हार कर



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