Tuesday, June 16, 2015

वो उदास आँखें



अनजान से शहर में
वो उदास आँखें
ढूंढने आई थीं ख़ुशी
जाने कब से जागे
मायूस सी नज़र
आँखों में ग़दर
कैसा गम समाये थीं
अनजान से शहर में
वो उदास आँखें जा रही थीं

हर अनजान चेहरे में
कुछ अपना सा ढूंढती थीं
हर जानी सी बात पर
जाने क्यों बिफरती थीं
कोई धुंधली सी याद
आँखों में नमी ला रही थी
कुछ तो था
जो वो छुपा रही थी
अनजान से शहर में
वो उदास आँखें जा रही थीं

शायद अपनों की कमी थी
या परायों को
अपना बना रही थी
पर फिर क्यों उन सपनों में
वो यादों को बसा रही थी
यादों की लकीरों से
जाने कैसी छवि बना रही थी
रात की ख़ामोशी में
वो धीमे से गुनगुना रही थी
पर वो गीत था या गम था
उस आवाज़ में कुछ दर्द था
जाने क्या सोच कर वो आँखें
हर ख़ुशी से कटरा रही थीं
अनजान से शहर में
वो उदास आँखें जा रही थीं

चेहरे पर जैसे किसी की नज़र ही नहीं जाती
होंठों की हसीं में दुनिया थी बहलती
हर उदास आँखों की उस हसी से यारी थी
नदियां, जंगल, पहाड़
उन सब को वो प्यारी थी
पर कौन जानता था
उन आँखों का राज़
वो खिलखिलाती हसीं
जगमहाअत बेशुमार
नए शहर में वो आँखें
जाने क्या पा रही थीं
सबसे मिलके बातें कर के
वो खुद से दूर जा रही थीं
हर किसी को हँसा कर
जाने क्या पा रही थीं
अनजान से शहर में
वो उदास आँखें जा रही थीं

उन आँखों में अब जूनून था
शायद काम का फितूर था
वो चाहती थीं बहुत कुछ करना
खुद से झगड़ना
खुद को समझना
अंजानो के बीच में
अजनबी सी वो
खोती पाती रहती खुद को
कभी खिलखिला कर हंस देती
कभी खुद ही से दो बातें कर लेती
ज़िन्दगी शायद बदल गयी थी
उन आँखों में अब कोई कमी नहीं थी
उन में था एक अजीब सा सूनापन
जैसे कहीं खो गया हो उनका मन
वो खुद को एक नए सिरे पर पा रही थीं
अनजान से शहर में
वो उदास आँखें जा रही थीं

- सुरभि रोहरा


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